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    ‘अछूत कन्या’ से ‘फुले’ तक… हिंदी फिल्मों में कितना बदला जातीय भेदभाव और ‘ब्राह्मणवाद’?

    MiliBy MiliApril 21, 2025No Comments7 Mins Read
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    ‘अछूत कन्या’ से ‘फुले’ तक… हिंदी फिल्मों में कितना बदला जातीय भेदभाव और ‘ब्राह्मणवाद’?

    अनंत महादेवन के डायरेक्शन में बनी फुले ऐसी पहली फिल्म नहीं है जिसमें सामाजिक यथार्थ को दिखाने के लिए जाति भेद के सामाजिक दंश को मुख्य विषय बनाया गया है. वैसे कुछ संवादों के सेंसर के बाद फुले 25 अप्रैल को रिलीज हो रही है लेकिन प्रतीक गांधी और पत्रलेखा अभिनीत इस फिल्म पर विवाद ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं. अनुराग कश्यप ने विवादित बयान देकर इसे और भी तूल दे दिया. जिसके बाद पूरे मामले ने अलग ही रूप ले लिया. प्रमुख मुद्दा गौण हो गया. गौर करें तो इतिहास में अनेक ऐसी फिल्में बनी हैं जिनमें ऊंच-नीच, अमीर-गरीब यहां तक कि दो अलग-अलग धर्मों के किरदारों की नजदीकियों और उनके सामाज-सुधार के कार्यों को प्रमुखता से दिखाया गया है.

    कोई अचरज नहीं इन फिल्मों ने भरपूर प्रशंसा भी बटोरी है, पुरस्कार ही पाए हैं. समाज को इन फिल्मों ने काफी प्रभावित किया है. इन फिल्मों ने जागरुकता फैलाई है. अछूत कन्या, सुजाता, जय भीम, महाराज और भीड़ से लेकर अब फुले भी उसी श्रेणी की फिल्म है, जो आज के समाज को इतिहास से सबक लेने की सीख देती है. जाति भेद के जहर को खत्म करने की प्रेरणा देती है.

    ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले से प्ररित

    अनंत महादेवन की फुले दो ऐसे समाज सुधारक यानी ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले से प्ररित है जिन्होंने अपने जीवन में ब्राह्मण संगठन के प्रहार झेलकर भी शिक्षा की अलख जगाई. हमारे इतिहासकारों और समाजशात्रियों ने उन्हें शिक्षा का अग्रदूत कहा है. इतिहास के पन्नों में दोनों शख्सियतों के योगदान दर्ज हैं. इन्हें अपनी जागरुकता मुहिम को आगे बढाने में कैसी-कैसी जातीय टिप्पणियों, नस्ली हमलों और नफरतों का सामना करना पड़ा, यह इतिहास और समाज शास्त्र का हिस्सा है जो जगजाहिर है. लेकिन फिल्मी पर्दे पर उसका रुपांतरण आज बर्दाश्त नहीं. चाहते तो विरोध करने वाले बड़ी ही सहजता से उदारता दिखा सकते थे कि फुले पर जातीय हमले उस समय के अशिक्षित माहौल से उपजे थे, आज की सामाजिक परिस्थितियां अलग हैं.

    ‘महाराज’ की ऐय्याशी की लीला की पोल खोल

    फुले फिल्म पर मचे घमासान को देखते हुए अनेक फिल्मों की याद आती है जिसने समाज सुधार जैसे जरूरी आंदोलन को आगे बढ़ाने में अहम योगदान दिया. अछूत कन्या जैसी फिल्म की चर्चा हम बाद में करेंगे लेकिन सबसे हाल की फिल्म महाराज की चर्चा करते हैं. यशराज बैनर्स जैसे मुख्यधारा के कमर्शियल प्रोडक्शन हाउस ने इस फिल्म को प्रोड्यूस किया था. नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई इस फिल्म की कहानी का आधार आज से करीब डेढ सौ साल पहले के धर्म के नाम पर एक गुरु महाराज की ऐय्याशी की लीला की पोल खोलती है. उसी दौर के एक लेखक, पत्रकार, शिक्षा शास्त्री और समाज सुधारक करसन दास ऐय्याश, रंगीन मिजाज महाराज को अदालत तक घसीटकर लाता है.

    आदित्य चोपड़ा की महाराज में जुनैद खान, जयदीप अहलावत और शालिनी पांडे ने अभिनय किया था और रिलीज से पहले गुजरात में महाराज से संबंधित धार्मिक संप्रदाय की ओर से कानूनी अड़चनों का भी सामना करना पड़ा था. लेकिन कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि महाराज में उन्हें ऐसा कुछ भी देखने को मिला जो आपत्तिजनक हो या जो इतिहास से अलग दिखाता हो या कि समाज पर जिसका बुरा प्रभाव पड़ता है. कोर्ट की इसी टिप्पणी के बाद यह फिल्म जून, 2024 में नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित की गई. कोई अचरज नहीं इस फिल्म से डेढ़ सौ साल पहले धर्म के नाम पर असंख्य कन्याओं और नव विवाहितों के साथ हुए अत्याचार के सच से आज की पीढ़ी वाकिफ हो सकी.

    Anurag Kashyap On Brahmin

    अनुराग कश्यप के बयान से विवाद और बढ़ा

    ब्राह्मणवादी या सवर्णवादी सोच को चुनौती

    महाराज से पहले पिछले कुछ सालों के भीतर देखें तो मसान, जय भीम, कर्णन, आर्टिकल 15, मुक्काबाज या फिर भीड़ जैसी कई फिल्में आ चुकी हैं, जहां जातीय भेदभाव को दर्शाया गया और ब्राह्मणवादी या सवर्णवादी सोच को चुनौती दी. मसान और भीड़ में दलित और ब्राह्रण प्रेमी-प्रेमिका के शारीरिक संबंध को दिखाकर परंपरागत जाति व्ववस्था पर तीखा प्रहार किया गया था. वहीं मसान के निर्देशक नीरज घयावान की ही अगली फिल्म अजीब दास्ता: गीली पुच्ची भी जाति व्यवस्था पर कटाक्ष करती है. प्रकाश झा की आरक्षण में जातीय मुद्दे को उठाते हुए आरक्षण जैसे मुद्दे पर आईना दिखाती है. यानी इन मुद्दों पर प्रखर चेतना की फिल्में बनती रही हैं.

    आजादी से पहले ही बनी ‘अछूत कन्या’

    देश में एक तरफ जब आजादी का आंदोलन चल रहा था, तब लेखकों, कलाकारों ने भी अपना योगदान देने के लिए प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की, जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने थी. यह 1936 का साल था. इसकी पृष्ठभूमि पहले से बनने लगी थी. इसका मकसद आजादी की प्रेरणा जगाने से लेकर सामाजिक सुधार के मुद्दों को भी अपना रचनात्मक बल प्रदान करना था. इसका असर हिमांशु रॉय और देविका रानी पर भी हुआ, जिन्होंने बॉम्बे टाकीज के बैनर तले उसी साल फिल्म बनाई- अछूत कन्या. हिमांशु रॉय की उस फिल्म में अशोक कुमार का किरदार ब्राह्रण युवक का था, जबकि देविका रानी बनी थीं- दलित युवती. फिल्म की कहानी में दोनों के प्रेम के आगे होने वाले संघर्ष को बहुत ही मार्मिक तरीके से दिखाया गया था.

    इसके बाद बिमल रॉय ने भी सन् 1959 में बनाई- सुजाता. इस फिल्म में सुनील दत्त और नूतन ने अभिनय किया था. इसकी कहानी में भी ऊंची जाति के प्रेमी और अछूत जाति की प्रेमिका की कहानी दिखाई गई थी. यह इतिहास में एक सुधारवादी क्लासिक फिल्म का स्थान रखती है. इसी तरह महान फिल्मकार सत्यजित राय ने सन् 1981 में बनाई- सद्गति. इस फिल्म की कहानी भी एक दलित के इर्द-गिर्द घूमती है. उस शख्स को अपनी बेटी की शादी के लिए शुभ तिथि हासिल करने के लिए सामाजिक भेदभाव का संघर्ष करना पड़ता है.

    ‘अंकुर’ के बाद ‘जाग उठा इंसान’

    इसके बाद श्याम बेनेगल जैसे दिग्गज फिल्ममेकर सन् 1974 में लेकर आए- अंकुर. भारत में यह कला फिल्मों का शुरुआती दौर था. इसमें भी एक दलित परिवार की कहानी दिखाई गई है. फिल्म में दलित दंपत्ति को एक जमींदार घराने के बेटे से संघर्ष का सामना करना पड़ता है. फिल्म दिखाती है कि जमींदार या उसका बेटा दलित समझकर पति को तो समाज की मुख्यधारा से दूर रखने की कोशिश करता है लेकिन उसकी पत्नी पर बुरी नजर भी रखता है. फिल्म जमींदारी की सोच पर हमला करती है. शबाना आजमी और अनंत नाग अभिनीत अंकुर ने 1975 में तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीते.

    मुझे इस संदर्भ में कुछ व्यावसायिक फिल्मों के भी नाम याद आते हैं, जैसे कि सौतन और जाग उठा इंसान. सन् 1983 में आई सावन कुमार की फिल्म सौतन में राजेश खन्ना, डिंपल कपाड़िया और पद्मिनी कोल्हापुरे ने अभिनय किया था. राजेश खन्ना और डिंपल पति-पत्नी हैं लेकिन बेऔलाद. ऐसी परिस्थिति में राजेश खन्ना को पद्मिनी कोल्हापुरे से मोहब्बत हो जाती है, जो कि फिल्म में दलित युवती बनी हैं. पद्मिनी के पिता के रूप में श्रीराम लागू ने एक दलित का किरदार बहुत ही प्रभावी तरीके से निभाया है.

    संतोष, धड़क2 भी निशाने पर क्यों?

    साल 1984 की फिल्म जाग उठा इंसान इस मायने में उल्लेखनीय है कि इसमें मिथुन चक्रवर्ती और श्रीदेवी ने साथ-साथ अभिनय किया था. उस वक्त श्रीदेवी की ज्यादातर फिल्में जीतेंद्र के साथ आया करती थीं. जाग उठा इंसान की कहानी में भी जाति भेद था. मिथुन चक्रवर्ती दलित युवक हैं तो वहीं ब्राह्रण कन्या बनी हैं श्रीदेवी. दोनों के बीच मोहब्बत और दो समाज के जातीय संघर्ष को फिल्म में बहुत ही यथार्थवादी तरीके से प्रस्तुत किया गया था. यानी जातीय सोच पर आजादी से पहले अछूत कन्या में दिखाया गया था, वह सोच आज भी फुले के जमाने में ज्यों का त्यों दिखाई दे रही है.

    आशय कहने का ये भी कि तमाम ऐसी फिल्में बन चुकी हैं और सराही जा चुकी हैं. इसके बावजूद फुले, महाराज, संतोष या फिर धड़क2 जैसी सामाजिक जागरुकता जगाने वाली फिल्मों को रिलीज में कानूनी ही नहीं बल्कि सामाजिक दुश्वारियों का भी सामना करना पड़ रहा है. संध्या सूरी की ब्रिटिश हिंदी फिल्म संतोष को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब प्रशंसा मिली. कान समेत कई समारोहों में प्रशंसित हैं. ऑस्कर की रेस में शॉर्टलिस्ट भी हुई लेकिन भारत में रिलीज नहीं हो सकी. वहीं सामाजिक मुद्दे पर बनी धड़क2 भी बनकर तैयार थी, लेकिन समय पर रिलीज नहीं हो पाई.

    यह भी पढ़ें :फिल्मों में सर तन से अलग JAAT ने तो हद कर दी, आज के सिनेमा में वॉयलेंस का ये कैसा ट्रेंड?

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